हिंदू फारसी, दलित असंवैधानिक शब्द
आज हमारे देश में दो शब्दों को लेकर समाज में एक बड़ी भ्रांति फैली हुई है, पहला हिंदू और दूसरा दलित। ये दोनों शब्द समाज की संरचना में दो विपरीत ध्रुवों के वाहक के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। दो अलग-अलग ध्रुवों की पहचान के चलते ही ये दोनों शब्द न केवल समाजगत बाधाओं में उलझे हुए है बल्कि समय-समय पर विवाद के रूप में भी सामने आए हैं। इसके इतर इन शब्दों की समाज के अलग- अलग वर्ग और दायरों में (दलित-गैर दलित ) अपना स्थान है। दलित शब्द की पहचान भारत के संदर्भ में ख्यात है तो हिंदू शब्द की पहचान हिंदुस्तानी संदर्भ में। आज देश में इन दो शब्दों को लेकर समय-समय पर बखेड़ा खड़ा होता रहता है। असल में वे दोनों शब्द संवैधानिक है ही नहीं। हिंदू शब्द तो भारत का भी नहीं है। यह फारसी है। इन दोनों शब्दों को संविधान में कहीं भी स्थान नहीं मिला है। इसे दूसरे शब्दों में कहे तो ये दोनों शब्द असंवैधानिक हैं, फिर भी ये दो शब्द आज समाज में न केवल व्यापक स्तर पर प्रचलित हैं बल्कि इनके साथ लोगों की भावनाएं भी अलग-अलग तरीके से जुड़ी हुई हैं। हिंदू असल में फारसी का शब्द है। इसी कारण इसका जिक्र न तो वेद में है, न पुराण में, न उपनिषद में, न आरण्यक में, न रामायण में न ही महाभारत में। स्वयं दयानन्द सरस्वती इस बात को कबूल चुके हैं कि यह मुगलों द्वारा दी गयी गाली है। बता दें कि सन् 1875 में ब्राह्मण दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की थी न कि हिंदू समाज की। आज इसके बारे में अनपढ़ ब्राह्मण भी जानता है कि हिंदू शब्द मुगलों द्वारा दी गई गाली है। इसी के चलते ब्राह्मणों ने स्वयं को हिन्दू कभी नहीं कहा। आज भी वे स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, लेकिन सभी शूद्रों को हिंदू कहते हैं। ब्राह्मणों ने मुगलों से कहा हम हिन्दू नहीं हैं बल्कि तुम्हारी तरह ही विदेशी हैं। इसी के चलते सारे हिंदुओं पर जजिया लगाया गया, लेकिन ब्राह्मणों को इससे मुक्त रखा गया। सन् 1920 में ब्रिटेन में वयस्क मताधिकार की चर्चा शुरू हुई थी। ब्रिटेन में भी दलील दी गयी कि वयस्क मताधिकार सिर्फ जमींदारों व करदाताओं को दिया जाए, लेकिन लोकतंत्र की जीत हुई। वयस्क मताधिकार सभी को दिया गया। देर सबेर गुलाम भारत में भी यही होना था। ब्राह्मणों ने सोचा यदि भारत में वयस्क मताधिकार लागू हुआ तो अल्पसंख्यक ब्राह्मण मक्खी की तरह फेंक दिये जाएंगे। अल्पसंख्यक ब्राह्मण कभी भी बहुसंख्यक नहीं बन पाएगें। सत्ता बहुसंख्यकों के हाथों में चली जाएगी, तब सभी ब्राह्मणों ने मिलकर 1922 में हिंदू महासभा का गठन किया जो ब्राह्मण स्वयं को हिंदू मानने कहने को तैयार नहीं थे, वयस्क मताधिकार से विवश होकर हिंदू नामक पहचान को मोहताज हुए और तभी से समाज में हिंदू शब्द प्रचलन में आ गया। अब हम दलित शब्द की उत्पति के बारे में जानते हैं। 'दलित' शब्द आया कहां से, क्या आपके पास इसका जवाब है? क्या आपको पता है कि किसने इस शब्द को सबसे पहले इस्तेमाल किया? किसने इस शब्द को समाज के पिछड़े तबके से जोड़ा। इस शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में मिलता है। इसके बाद 1921 से 1926 के बीच 'दलित' शब्द का इस्तेमाल 'स्वामी श्रद्धानंद' ने भी किया था। दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी। कभी-कभी डा. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर भी दलित शब्द को प्रयोग में लाते थे, लेकिन वे अक्सर डिप्रेस्ड क्लास शब्द का ही इस्तेमाल करते थे, अंग्रेज भी इसी शब्द का इस्तेमाल करते थे। हालांकि इस शब्द को सामाजिक स्वीकारोक्ति दलित पैंथर्स नामक संगठन ने दी है। दलित पैंथर्स ने ही पिछड़ों को नया नाम दलित दिया था। सन् 1972 में महाराष्ट्र में 'दलित पैंथर्स' मुंबई नाम का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाया गया था, आगे चलकर इसी संगठन ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके शुरुआती प्रमुख नेताओं में शामिल रहे हैं। माना जाता है कि इसका गठन अफ्रीकी-अमेरिकी ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया था। यहीं से 'दलित' शब्द को महाराष्ट्र में सामाजिक स्वीकृति मिली, लेकिन अभी तक दलित शब्द उत्तर भारत में प्रचलित नहीं हुआ था। उत्तर भारत में दलित शब्द को प्रचलित करने का काम दलितों के आधुनिक मसीहा के रूप में पहचाने जाने वाले कांशीराम ने किया। डीएसवाय जिसका मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति, इसका गठन स्वयं कांशीराम ने ही किया था। अब महाराष्ट्र के बाद उत्तर भारत में पिछड़ों और अति-पिछड़ों को दलित कहा जाने लगा था। कांशीराम का नारा भी था कि ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ बाकी सब ड़ीएस-फोर। दलित चिंतकों और सामाजिक वैज्ञानिकों का एक तबका ऐसा भी है जो यह मानता है कि 'दलित' शब्द दरअसल लोकभाषा के शब्द दरिद्र से आया है। किसी जाति विशेष से यह शब्द नहीं जुड़ा है इसलिए इसे स्वीकृति भी बड़े पैमाने पर मिली। बहरहाल हम यह जान लें कि ये दोनों शब्द संवैधानिक नहीं है बावजूद इसके समाज में अपना अहम स्थान रखते हैं। -संजय रोकड़े