Tuesday, 7 May 2019

धोखेबाज पुष्यमित्र शुंग (राम)


👆🏻 *मौर्य साम्राज्य के 10 वें न्यायप्रिय सम्राट बृहद्रथ मौर्य की साजिश के तहत धोखे से हत्या करने वाला हत्यारा ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग...✍🏻*

*👇👇 अखण्ड भारत में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में अखण्ड भारत के निर्माता चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक महान के वंशज मौर्य वंश के 10 वें न्यायप्रिय सम्राट राजा बृहद्रथ मौर्य  की हत्या उन्हीं के सेनापति ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने धोखे से की थी और  खुद को मगध का राजा घोषित कर लिया था ।*

👆🏻 *उसने राजा बनने पर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक सभी बौद्ध विहारों को ध्वस्त करवा दिया था तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओ का खुलेआम कत्लेआम किया था। पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों व यहाँ की जनता पर बहुत अत्याचार करता था और ताकत के बल पर उनसे ब्राह्मणों द्वारा रचित मनुस्मृति अनुसार वर्ण (हिन्दू) धर्म कबूल करवाता था*।

👆🏻 *उत्तर -पश्चिम क्षेत्र पर यूनानी राजा मिलिंद का अधिकार था। राजा मिलिंद बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। जैसे ही राजा मिलिंद को पता चला कि पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों पर अत्याचार कर रहा है तो उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। पाटलिपुत्र की जनता ने भी पुष्यमित्र शुंग के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया, इसके बाद पुष्यमित्र शुंग जान बचाकर भागा और उज्जैनी में जैन धर्म के अनुयायियों की शरण ली*।

*जैसे ही इस घटना के बारे में कलिंग के राजा खारवेल को पता चला तो उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित करके पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया*। *पाटलिपुत्र से यूनानी राजा मिलिंद को उत्तर पश्चिम की ओर धकेल दिया*।
👆🏻 *इसके बाद ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग राम ने अपने समर्थको के साथ मिलकर पाटलिपुत्र और श्यालकोट के मध्य क्षेत्र पर अधिकार किया और अपनी राजधानी साकेत को बनाया। पुष्यमित्र शुंग ने इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया। अयोध्या अर्थात-बिना युद्ध के बनायीं गयी राजधानी*...

👆🏻 *राजधानी बनाने के बाद पुष्यमित्र शुंग राम ने घोषणा की कि जो भी व्यक्ति, बौद्ध भिक्षुओं का सर (सिर) काट कर लायेगा, उसे 100 सोने की मुद्राएँ इनाम में दी जायेंगी। इस तरह सोने के सिक्कों के लालच में पूरे देश में बौद्ध भिक्षुओ  का कत्लेआम हुआ। राजधानी में बौद्ध भिक्षुओ के सर आने लगे । इसके बाद कुछ चालक व्यक्ति अपने लाये  सर को चुरा लेते थे और उसी सर को दुबारा राजा को दिखाकर स्वर्ण मुद्राए ले लेते थे। राजा को पता चला कि लोग ऐसा धोखा भी कर रहे है तो राजा ने एक बड़ा पत्थर रखवाया और राजा, बौद्ध भिक्षु का सर देखकर उस पत्थर पर मरवाकर उसका चेहरा बिगाड़ देता था । इसके बाद बौद्ध भिक्षु के सर को घाघरा नदी में फेंकवा दता था*।
 *राजधानी अयोध्या में बौद्ध भिक्षुओ  के इतने सर आ गये कि कटे हुये सरों से युक्त नदी का नाम सरयुक्त अर्थात वर्तमान में अपभ्रंश "सरयू" हो गया*।
👆🏻 *इसी "सरयू" नदी के तट पर पुष्यमित्र शुंग के राजकवि वाल्मीकि ने "रामायण" लिखी थी। जिसमें राम के रूप में पुष्यमित्र शुंग और "रावण" के रूप में मौर्य सम्राटों का वर्णन करते हुए उसकी राजधानी अयोध्या का गुणगान किया था और राजा से बहुत अधिक पुरस्कार पाया था। इतना ही नहीं, रामायण, महाभारत, स्मृतियां आदि बहुत से काल्पनिक ब्राह्मण धर्मग्रन्थों की रचना भी पुष्यमित्र शुंग की इसी अयोध्या में "सरयू" नदी के किनारे हुई*।

👆🏻 *बौद्ध भिक्षुओ के कत्लेआम के कारण सारे बौद्ध विहार खाली हो गए। तब आर्य ब्राह्मणों ने सोचा' कि इन बौद्ध विहारों का क्या करे की आने वाली पीढ़ियों को कभी पता ही नही लगे कि बीते वर्षो में यह क्या थे*
*तब उन्होंने इन सब बौद्ध विहारों को मन्दिरो में बदल दिया और इसमे अपने पूर्वजो व काल्पनिक पात्रों,  देवी देवताओं को भगवान बनाकर स्थापित कर दिया और पूजा के नाम पर यह दुकाने खोल दी*।

👆🏻 *ध्यान रहे उक्त बृहद्रथ मौर्य की हत्या से पूर्व भारत में मन्दिर शब्द ही नही था,  ना ही इस तरह की संस्क्रति थी। वर्तमान में ब्राह्मण धर्म में पत्थर पर मारकर नारियल फोड़ने की परंपरा है ये परम्परा पुष्यमित्र शुंग के बौद्ध भिक्षु के सर को पत्थर पर मारने का प्रतीक है*।

👆🏻 *पेरियार रामास्वामी नायकर ने भी " सच्ची रामायण" पुस्तक लिखी जिसका इलाहबाद हाई कोर्ट केस नम्बर* *412/1970 में वर्ष 1970-1971 व् सुप्रीम कोर्ट 1971 -1976 के बीच में केस अपील नम्बर 291/1971 चला* ।
*जिसमे सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस पी एन भगवती जस्टिस वी आर कृषणा अय्यर, जस्टिस मुतजा फाजिल अली ने दिनाक 16.9.1976 को निर्णय दिया की सच्ची रामायण पुस्तक सही है और इसके सारे तथ्य सही है। सच्ची रामायण पुस्तक यह सिद्ध करती है कि "रामायण" नामक देश में जितने भी ग्रन्थ है वे सभी काल्पनिक है और इनका पुरातात्विक कोई आधार नही है*।
👆🏻 *अथार्त् 100% फर्जी व काल्पनिक है*।

Friday, 5 April 2019

बाबासाहेबांची जयंती कधी आणि कोणी सुरू केली ?


जुन्या काळातील एक थोर सामाजिक कार्यकर्ते जनार्दन सदाशिव रणपिसे यांचा जन्म सासवड येथे 24 ऑगस्ट 1898 मध्ये झाला. ज्या काळात शिक्षणाच्या सोयी वा सवलती उपलब्ध नव्हत्या त्या काळात पुणे जिल्ह्यातील दलित समाजातील ते पहिले मॅट्रिक्युलेट झाले यातच त्यांचा मोठेपणा आहे. मॅट्रिकची परीक्षा उत्तीर्ण झाल्यावर त्यांनी पुण्याच्या फर्ग्युसन कॉलेजमध्ये दोन वर्षे अभ्यास केला. 1918 ते 21 साली त्यांनी सन्मार्ग दर्शक मंडळाची स्थापना करून सामाजिक सभा, संमेलने मौलिक व्याख्याने नाटके प्रौढांकरता रात्रीचे वर्ग चालवले. सोबतच व्यायामशाळा काढून तरूण सुशिक्षितांमध्ये नवचैतन्य निर्माण केले.

महार सेवादलाची त्यांनी स्थापना केली. तिचे ते कमांडर इन चीफ बनले. राजकारण त्यांनी जास्त केले नाही परंतु सामाजिक कार्याचे ते अध्वर्यू होते. समाजकार्यात त्यांचा मोठा वाटा आहे. पुण्यात डॉ बाबासाहेब आंबेडकरांना मानपत्र तीन हजार रुपये प्रेस फंड पाच हजार रुपये इमारत फंड जमवण्यात त्यांचा मोठा वाटा होता. पुण्यात युवक परिषद भरवली गेली ती पुणे जिल्ह्यासाठी किंवा शहरासाठी नव्हती. त्यात संबंध महाराष्ट्रातील प्रतिनिधी आले होते. 1939 साली कायदे मंडळात चौदाही प्रतिनिधी निवडून गेले. त्याचे श्रेय बाऊसाहेब रणपिसे यांचेकडे ओघानेच जाते.

महात्मा गांधी यांनी पुण्यात उपवास केला त्यावेळी बाबासाहेबांचा मुक्काम नॅशनल हॉटेसमध्ये होता. त्यावेळी रणपिसे यांनी मोलाची कामगिरी बजावली. विशेष म्हणजे ते त्यावेळी सरकारी नोकरी करत होते. अशा रीतीने ते एक समाजसेवाच करत होते.


पहिली जयंती

डॉ बाबासाहेब यांचा पहिला वाढदिवस पुण्यात प्रथम 14 एप्रिल 1928 रोजी रणपिसे यांनी साजरा केला. इतकेच नव्हे तर या जन्मदिवस समारंभाचे ते जणू शिल्पकारच ठरले. बाबासाहेबांच्या जयंतीची प्रथा त्यांनीच सुरू केली. खडकी पत्र विभाग दलित मंडळाचे अध्यक्ष असताना जयंतीचे औचित्य साधत त्यांनी बाबासाहेबांची प्रतिमा हत्तीच्या अंबारीत ठेवून प्रभात फिल्म कंपनीच्या रथातून, उंटावरून प्रचंड मिरवणुका काढल्या होत्या.

यानंतर खडकी भागात प्रत्येक वस्तीत आंबेडकरांची जयंती साजरी व्हायला लागली. या सर्व वस्त्यांचे भाऊसाहेबांनी एकीकरण घडवून दलित मंडळाची स्थापना केली, या मंडळातर्फे आंबेडकरांची जयंती भव्य प्रमाणात साजरी केली. 24 ऑगस्ट 1958 रोजी रणपिसे यांच्या 60 व्या वाढदिवसानिमित्त मित्रमंडळीने पुणे शहरात त्यांचा सत्कार समारंभ घडवून आणला होता. बाबासाहेबांची पहिली जयंती साजरी करत या उपक्रमाची सुरुवात करणाऱ्या भाऊसाहेबांनी विद्यार्थ्यांसोबतच अस्पृश्यवर्गाची जी बहुमोल सेवा केली त्याबद्दल संपूर्ण आंबेडकरी समाज त्यांचा सदैव ऋणी राहील यात शंका नाही.

(लोकराज्यच्या एप्रिलच्या अंकातून साभार, लेखक – मिलिंद मानकर, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या आठवणींचे संग्राहक)

Wednesday, 27 February 2019


हिंदू फारसी, दलित असंवैधानिक शब्द

आज हमारे देश में दो शब्दों को लेकर समाज में एक बड़ी भ्रांति फैली हुई है, पहला हिंदू और दूसरा दलित। ये दोनों शब्द समाज की संरचना में दो विपरीत ध्रुवों के वाहक के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। दो अलग-अलग ध्रुवों की पहचान के चलते ही ये दोनों शब्द न केवल समाजगत बाधाओं में उलझे हुए है बल्कि समय-समय पर विवाद के रूप में भी सामने आए हैं। इसके इतर इन शब्दों की समाज के अलग- अलग वर्ग और दायरों में (दलित-गैर दलित ) अपना स्थान है। दलित शब्द की पहचान भारत के संदर्भ में ख्यात है तो हिंदू शब्द की पहचान हिंदुस्तानी संदर्भ में। आज देश में इन दो शब्दों को लेकर समय-समय पर बखेड़ा खड़ा होता रहता है। असल में वे दोनों शब्द संवैधानिक है ही नहीं। हिंदू शब्द तो भारत का भी नहीं है। यह फारसी है। इन दोनों शब्दों को संविधान में कहीं भी स्थान नहीं मिला है। इसे दूसरे शब्दों में कहे तो ये दोनों शब्द असंवैधानिक हैं, फिर भी ये दो शब्द आज समाज में न केवल व्यापक स्तर पर प्रचलित हैं बल्कि इनके साथ लोगों की भावनाएं भी अलग-अलग तरीके से जुड़ी हुई हैं। हिंदू असल में फारसी का शब्द है। इसी कारण इसका जिक्र न तो वेद में है, न पुराण में, न उपनिषद में, न आरण्यक में, न रामायण में न ही महाभारत में। स्वयं दयानन्द सरस्वती इस बात को कबूल चुके हैं कि यह मुगलों द्वारा दी गयी गाली है। बता दें कि सन् 1875 में ब्राह्मण दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की थी न कि हिंदू समाज की। आज इसके बारे में अनपढ़ ब्राह्मण भी जानता है कि हिंदू शब्द मुगलों द्वारा दी गई गाली है। इसी के चलते ब्राह्मणों ने स्वयं को हिन्दू कभी नहीं कहा। आज भी वे स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, लेकिन सभी शूद्रों को हिंदू कहते हैं। ब्राह्मणों ने मुगलों से कहा हम हिन्दू नहीं हैं बल्कि तुम्हारी तरह ही विदेशी हैं। इसी के चलते सारे हिंदुओं पर जजिया लगाया गया, लेकिन ब्राह्मणों को इससे मुक्त रखा गया। सन् 1920 में ब्रिटेन में वयस्क मताधिकार की चर्चा शुरू हुई थी। ब्रिटेन में भी दलील दी गयी कि वयस्क मताधिकार सिर्फ जमींदारों व करदाताओं को दिया जाए, लेकिन लोकतंत्र की जीत हुई। वयस्क मताधिकार सभी को दिया गया। देर सबेर गुलाम भारत में भी यही होना था। ब्राह्मणों ने सोचा यदि भारत में वयस्क मताधिकार लागू हुआ तो अल्पसंख्यक ब्राह्मण मक्खी की तरह फेंक दिये जाएंगे। अल्पसंख्यक ब्राह्मण कभी भी बहुसंख्यक नहीं बन पाएगें। सत्ता बहुसंख्यकों के हाथों में चली जाएगी, तब सभी ब्राह्मणों ने मिलकर 1922 में हिंदू महासभा का गठन किया जो ब्राह्मण स्वयं को हिंदू मानने कहने को तैयार नहीं थे, वयस्क मताधिकार से विवश होकर हिंदू नामक पहचान को मोहताज हुए और तभी से समाज में हिंदू शब्द प्रचलन में आ गया। अब हम दलित शब्द की उत्पति के बारे में जानते हैं। 'दलित' शब्द आया कहां से, क्या आपके पास इसका जवाब है? क्या आपको पता है कि किसने इस शब्द को सबसे पहले इस्तेमाल किया? किसने इस शब्द को समाज के पिछड़े तबके से जोड़ा। इस शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में मिलता है। इसके बाद 1921 से 1926 के बीच 'दलित' शब्द का इस्तेमाल 'स्वामी श्रद्धानंद' ने भी किया था। दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी। कभी-कभी डा. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर भी दलित शब्द को प्रयोग में लाते थे, लेकिन वे अक्सर डिप्रेस्ड क्लास शब्द का ही इस्तेमाल करते थे, अंग्रेज भी इसी शब्द का इस्तेमाल करते थे। हालांकि इस शब्द को सामाजिक स्वीकारोक्ति दलित पैंथर्स नामक संगठन ने दी है। दलित पैंथर्स ने ही पिछड़ों को नया नाम दलित दिया था। सन् 1972 में महाराष्ट्र में 'दलित पैंथर्स' मुंबई नाम का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाया गया था, आगे चलकर इसी संगठन ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके शुरुआती प्रमुख नेताओं में शामिल रहे हैं। माना जाता है कि इसका गठन अफ्रीकी-अमेरिकी ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया था। यहीं से 'दलित' शब्द को महाराष्ट्र में सामाजिक स्वीकृति मिली, लेकिन अभी तक दलित शब्द उत्तर भारत में प्रचलित नहीं हुआ था। उत्तर भारत में दलित शब्द को प्रचलित करने का काम दलितों के आधुनिक मसीहा के रूप में पहचाने जाने वाले कांशीराम ने किया। डीएसवाय जिसका मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति, इसका गठन स्वयं कांशीराम ने ही किया था। अब महाराष्ट्र के बाद उत्तर भारत में पिछड़ों और अति-पिछड़ों को दलित कहा जाने लगा था। कांशीराम का नारा भी था कि ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ बाकी सब ड़ीएस-फोर। दलित चिंतकों और सामाजिक वैज्ञानिकों का एक तबका ऐसा भी है जो यह मानता है कि 'दलित' शब्द दरअसल लोकभाषा के शब्द दरिद्र से आया है। किसी जाति विशेष से यह शब्द नहीं जुड़ा है इसलिए इसे स्वीकृति भी बड़े पैमाने पर मिली। बहरहाल हम यह जान लें कि ये दोनों शब्द संवैधानिक नहीं है बावजूद इसके समाज में अपना अहम स्थान रखते हैं। -संजय रोकड़े

करवाचौथ व्रत या पत्नी को गुलामी का
अहसास दिलाने का एक और दिन?
'श्रद्धा या अंधविश्वास'
दोस्तों क्या महिला के उपवास रखने से पुरुष
की उम्र बढ़ सकती है?क्या धर्म का कोई
ठेकेदार इस बात की गारंटी लेने को तैयार
होगा कि करवाचौथ जैसा व्रत करके पति
की लंबी उम्र हो जाएगी? मुस्लिम नहीं
मनाते, ईसाई नहीं मनाते, दूसरे देश नहीं मनाते
और तो और भारत में ही दक्षिण, या पूर्व में
नहीं मनाते लेकिन इस बात का कोई सबूत
नहीं है कि इन तमाम जगहों पर पति की उम्र
कम होती हो और मनाने वालों के पति की
ज्यादा,
क्यों दोस्तों है किसी के पास कोई जवाब?
दोस्तों यह व्रत ज्यादातर उत्तर भारत में
प्रचलित हैं, दक्षिण भारत में इसका महत्व ना
के बराबर हैं, क्या उत्तर भारत के महिलाओं के
पति की उम्र दक्षिण भारत के महिलाओं के
पति से कम हैं ?क्या इस व्रत को रखने से उनके
पतियों की उम्र अधिक हो जाएगी?क्या
यह व्रत उनकी परपरागत मजबूरी हैं या यह एक
दिन का दिखावा हैं?
दोस्तों इसे अंधविश्वास कहें या आस्था की
पराकाष्ठा?पर सच यह हैं करवाचौथ जैसा
व्रत महिलाओं की एक मजबूरी के साथ उनको
अंधविश्वास के घेरे में रखे हुए हैं।कुछ महिलाएँ इसे
आपसी प्यार का ठप्पा भी कहेँगी और साथ
में यह भी बोलेंगी कि हमारे साथ पति भी
यह व्रत रखते हैं। परन्तु अधिकतर महिलाओं ने इस
व्रत को मजबूरी बताया हैं।
एक कांफ्रेस में मैंने खुद कुछ महिलाओं से इस व्रत
के बारे में पूछा उनका मानना हैं कि यह
पारंपरिक और रूढ़िवादी व्रत है जिसे घर के
बड़ो के कहने पर रखना पड़ता हैं क्योंकि कल
को यदि उनके पति के साथ संयोग से कुछ हो
गया तो उसे हर बात का शिकार बनाया
जायेगा, इसी डर से वह इस व्रत को रखती हैं।
क्या पत्नी के भूखे-प्यासे रहने से पति
दीर्घायु स्वस्थ हो सकता है? इस व्रत की
कहानी अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है
कि करवाचौथ का व्रत न रखने अथवा
अज्ञानवश व्रत के खंडित होने से पति के
प्राण खतरे में पड़ सकते हैं, यह महिलाओं को
अंधविश्वास और आत्मपीड़न की बेड़ियों में
जकड़ने को प्रेरित करता है। सारे व्रत-उपवास
पत्नी, बहन और माँ के लिए ही क्यों हैं? पति,
भाई और पिता के लिए क्यों नहीं?क्योंकि
महिलाओं की जिंदगी की कोई कीमत तो
है नहीं धर्म की नज़र में, पत्नी मर जाए तो
पुरुष दूसरी शादी कर लेगा, क्योंकि सारी
संपत्ति पर तो व्यावहारिक अधिकार उसी
को प्राप्त है। बहन, बेटी मर गयी तो दहेज बच
जाएगा। बेटी को तो कुल को तारना नहीं
है, फिर उसकी चिंता कौन करे?
अगर महिलाओं को आपने सदियों से घरों में
क़ैद करके रख के आपने उनकी चिंतन शक्ति को
कुंद कर दिया हैं तो क्या अब आपका यह
दायित्व नहीं बनता कि, आप पहल करके उन्हें
इस मानसिक कुन्दता से आज़ाद करायें?
मैं कुछ शादीशुदा लोगों से पूछना चाहता हूँ
की क्या आज के युग में सब पति पत्निव्रता हैं?
आज की अधिकतर महिलाओं की जिन्दगी
घरेलू हिंसा के साथ चल रही हैं जिसमें उनके
पतियों का हाथ है। ऐसी महिलाओं को
करवाचौथ का व्रत रखना कैसा रहेगा?
भारत का पुरुष प्रधान समाज केवल नारी से
ही सब कुछ उम्मीद करता हैं परन्तु नारी का
सम्मान करना कब सोचेगा?
एक बात और, मैंने अपनी आँखो से अनेक
महिलाओ को करवा चौथ के दिन भी
विधवा होते देखा है जबकि वह दिन भर
करवा चौथ का उपवास भी किये थी। दो
वर्ष पहले मेरा मित्र जिसकी नई शादी हुई
और पहली करवाचौथ के दिन सड़क हादसे में
उसकी मृत्यु हो गई, उसकी पत्नी अपने पति
की दीर्घायु के लिए करवाचौथ का व्रत
किए हुए थी, तो क्यों ऐसा हुआ? इसीवास्ते
मुझे लगता है की,करवा चौथ के आधार पर जो
समाज मे अंध विश्वास, कुरीति, पाखंड फैला
हुआ है, उसको दूर करने के लिए पुरुषों के साथ
खासतौर से महिलाए अपनी उर्जा लगाये
तो वह ज्यादा बेहतर रहेगा।
2) Balendu Swami
मैं अपने आस-पास की करवा चौथ रखने वाली
कुछ महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से जानता
हूँ: एक महिला जो 15 साल से विवाहित है
और रोज आदमी से लड़ाई होती है, सभी
जानते हैं कि इनका वैवाहिक जीवन नरक है.
दूसरी महिला जिसकी महीने में 20 दिन
पति से बोलचाल बंद रहती है और वो उसे
छुपाती भी नहीं है तथा अकसर ही अपनी
जिन्दगी का रोना रोती है.
इस तीसरी महिला को हफ्ते में दो तीन
बार उसका पति दारु पीकर पीटता है और
उस महिला के अनुसार वेश्याओं के पास भी
जाता है।
चौथी महिला के अपने मोहल्ले के ही 3 अलग
अलग पुरुषों के साथ शारीरिक सम्बन्ध हैं और
इसे लेकर पति के साथ लड़ाई सड़क पर आ चुकी
है तथा सबको पता है।
पांचवीं महिला की बात और भी विचित्र
है: उसका अपने पति से तलाक और दहेज़ का केस
कोर्ट में चल रहा है. केवल कोर्ट में तारीखों
पर ही आमना सामना होता है!
परन्तु ये सभी करवा चौथ का व्रत रखतीं हैं!
क्यों रखती हैं तथा इनकी मानसिक
स्थिति क्या होगी? ये कल्पना करने के लिए
आप लोग स्वतंत्र हैं!
Mahesh Rathi
करवा चोथ का अध्यन मेने किया तब पाया
की दुनिया की बहुत छोटी संख्या इसको
मनाती हे ........कन्या भ्रूण हत्या के जो
कारण हे उसमे करवा चोथ के पीछे की
भावना भी एक बड़ा बुराई हे
.........महिलाओ द्वारा महिलाओ के लिए
जो ताबूत बनाये गए हे उसमे विधवा तथा
पुनर्विवाह का विरोध भी एक हे तथा
करवा चोथ उसका सामूहिक प्रदर्शन हे
........जो महिलाये करवा चोथ मनाती हे
...शायद वो अनजाने में विधवा विवाह तथा
लडकियो के पुनर्विवाह का भी विरोध
करती हे. पढ़ी लिखी लडकिया आजकल
करवा चोथ अपने मन से नहीं मनाती .......जैसे
जैसे लडकियो की शिक्षा का विकाश
होगा तथा समाज में सभ्यता का विकाश
होगा ........महिलाओ की मानवीय
गरिमा का इस तरह विरोध करने वाले
त्यौहार................क्या त्यौहार भी गिने
जाने चाहिए ?. इनका समर्थन नहीं किया
जाना चहिये....... अधिकांश महिलाये
पर्दा रखती थी लेकिन कुछ महिलाओ ने
पर्दा हटाया तथा आज वो गायब हे....ठीक
इसी तरह ये भी एक दिन गायब होगा।


हम हिन्दू नही हैं ।----
संविधान के अनुच्छेद 330 -342 से प्रमाणित है कि
अनु.जाति / जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के लोग हिन्दू
नही हैं । यदि किसी में दम है तो प्रमाणित करके
बताये कि अनु.जाति /जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के
लोग हिन्दू हैं । विदेशी हिन्दू संस्कृति , विदेशी मुगल
संस्कृति और विदेशी ईसाई संस्कृति इन तीनों
संस्कृतियों के आधार पर भारत में किसी को आरक्षण
नही मिलता है । सरकारी दस्तावेजों में अनु.जाति /
जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के लोगों से जो हिन्दू धर्म
का कॉलम भरवाया जाता है वह भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 330 और 332 के अधीन अवैधानिक है ।
जिस पर माननीय न्यायालय में वाद लाया जा
सकता है ।
कुछ लोगों का मत है कि पहले आप जातिगत आरक्षण
खत्म करो । तब जातिवाद अपने आप समाप्त हो
जायेगा । मैं ऐसे लोगों को शुद्ध हिन्दी में समझा
देता हूँ कि अनु.जाति / जनजाति एवं पिछड़े वर्ग को
आरक्षण किसी धर्म की जातियों का भाग होने पर
नही मिला है । अनु.जाति /जनजाति एवं पिछड़े वर्ग
के लोग भारतीय मूलवासी हैं और उन पर विदेशी आर्य
संस्कृति अर्थात वैदिक संस्कृति अर्थात सनातन
संस्कृति अर्थात हिन्दू संस्कृति ने इतने कहर जुल्म और
अत्यचार ढाये जिनको पढ़ कर , सुनकर और देखकर मन में
अथाह दर्द भरी बदले की चिंगारी उठती है , जिसका
वर्णन नही किया जा सकता । जो धर्म जिन लोगों
पर अत्याचार जुल्म और कहर ढाता है । वे लोग उस धर्म
के अंग कैसे हो सकते हैं । हमें आरक्षण इसलिए नही
मिला है कि हम हिन्दू रूपी वर्ण और जाति के अंग हैं ।
यह जातियाँ हिन्दुवादी लोगों ने कार्य के आधार पर
भारतीय मूल वासियों पर अत्याचार करने के अनुरूप
जबरदस्ती थोपी हैं । जबकि भारतीय मूलवासी लोग
देश के विकास के लिए इस प्रकार के धंधे करते थे । उन्ही
धंधों के आधार पर विदेशी हिन्दू संस्कृति ने भारतीय
मूलवासियों को ऊँचता नीचता के आधार पर
विघटित कर दिया और उस ऊँचता - नीचता के आधार
पर तरह तरह के जुल्म एवं अत्याचार भारतीय
मूलवासियों पर ढाये गए । हिन्दू संस्कृति ने भारतीय
लोगों पर जाति एवं वर्ण के आधार पर जितने
अत्याचार किये । उन अत्याचारों का आकलन
संविधान निर्माण कमेटी ने किया । उस आकलन के
आधार पर भारतीय मूलवासियों को आरक्षण मिला
है न कि हिंदुओं की तथाकथित जाति होने पर । जो
हिन्दू शास्त्र अनु.जाति /जनजाति एवं पिछड़े वर्ग
को बुरी बुरी गालियों से नवाजते हैं । वे लोग हिन्दू
संस्कृति के अंग कैसे हो सकते हैं । जैसे -
किसी भी संस्कृत ग्रन्थ को उठाकर देख लीजिये ,
सभी में SC/ST/OBC एवं समस्त स्त्री जाति के लिए
गालियों का भण्डार भरा पड़ा है | जैसे – ढोल गवांर
शूद्र पशु नारी | सकल ताड़ना के अधिकारी ||
( रामचरित मानस पृष्ठ संख्या 663 पर ) | जे वर्णाधम
तेली कुम्हारा | स्वपच , किरात कोल कलवारा ||
रामचरित मानस के पृष्ठ 870 पर गोस्वामी
तुलसीदास ने लिखा है कि तेली , कुम्हार , चाण्डाल
, भील , कोल और कल्हार आदि वर्ण में नीचे हैं अर्थात
शूद्र हैं |
महिं पार्थ व्यापाश्रित्य स्यू : येsपि पाप योनया : |
स्त्रियों वैश्यार तथा शूद्रास्तेSपि यान्ति प्राम
गतिम ||
( गीता अध्याय – 9 श्लोक 32 )
अर्थात – हे अर्जुन ! स्त्री , शूद्र तथा वैश्य पापयोनि
के होते हैं , परन्तु यदि ये भी मेरी शरण में आ जाएं तो
उनका भी उद्धार मैं कर देता हूँ |
वर्द्धकी नापितो गोप : आशाप : कुंभकारक |
वाणिक्कित कायस्थ मालाकार कुटुंबिन ||
वरहो मेद चंडाल : दासी स्वपच कोलका |
एषां सम्भाषणात्स्नानं दर्शनादार्क वीक्षणम ||
( व्यास स्मृति – 1/11-12)
अर्थात – व्यास स्मृति के अध्याय – 1 के श्लोक 11
एवं 12 से भारतीय समाज को शिक्षा मिलती है कि
बढई , नाई , ग्वाल , कुम्हार , बनिया , किरात ,
कायस्थ , भंगी , कोल , चंडाल ये सब शूद्र (नीच)
कहलाते हैं . इनसे बात करने पर स्नान और इनको देख लेने
पर सूर्य के दर्शन से शुद्धि होती है |
जो संस्कृत ग्रन्थ भारतीय समाज के लोगों को इस
प्रकार की गालियों से नवाजते हैं , वे उस संस्कृति के
अंग कैसे हो सकते हैं ? हिन्दू संस्कृति के ऐसे दुराचरण के
कारण ही भारतीय मूलवासियों को आरक्षण मिला
है । न कि हिन्दू धर्म के कारण ।



बलि या क़ुरबानी
कितना सही कितना गलत,कुछ
सच्चाई है या फिर
अंधविश्वास------
बलि या कुर्वानी हिंदू और
मुस्लिम समाज का अभिन्न अंग
रहा है दोनों समाज सदियोँ से
इसे सही ठहराते आये है ,चालिए
आज दोनों का नंबर एक साथ
लगा देते है वरना मुझ पर पक्षपात
का आरोप लगेगा ,पोस्ट
को रुचिकर बनाने के लिए मुद्दे से
भटकना भी जरुरी है पर
इतना विस्वास रखिये सच्चाई से
नहीं भटका जायेगा ,सबसे पहले
हिंदू समाज में बलि प्रथा पर
प्रकाश डालते है फिर मुस्लिम
समाज की क्लास
ली जायेगी ---
हिंदू समाज में बलि प्रथा -----
हिंदू समाज में
बलि प्रथा सदियों से
चली आयी है अब मुझे
ना तो बलि प्रथा का डिटेल
इतिहास पता है और
पता भी होता तो बता कर
आपको पकाना नहीं चाहता,बस
इतना पता है लोग देवी/देवताओ
को प्रसन्न करने के लिए निर्दोष
जानबरों की बलि दिया करते थे
अब भी दिया करते है पर इस
प्रथा में कमी आई है क्यूँ कि अब
अकल नाम की बस्तु का विकास
हो गया है और लोगों को समझ
आने लगा है बलि से कोई भगवान
प्रसन्न नहीं होते वो तो कुछ
पाखंडियों ने अपने लाभ के लिए
ऐसी प्रथा बना दी थी जिसका लोगों ने
आँखें बंद करके विस्वास कर
लिया और इस प्रथा को आगे
बढ़ाते गये ,वैसे भी हिंदू समाज
अंधविश्वासों की पोटली रहा है
सभी प्रकार के अंधविस्वास
यहाँ पाए जाते थे समय के साथ
और अकल के उदय के साथ कुछ
तो विलुप्त हो गये और कुछ अब
भी वाकी है ,आप अब भी पिछड़े
हुये एरिया में चले जाएये अब
भी निर्दोष
जानबरों की बलि दी जाती है
जब की विकसित एरिया में
ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है
मतलव साफ़ है बलि से कोई
देवी देवता प्रसन्न
नहीं होता अगर प्रसन्न
होता तो सभी विकसित देश
रोज बकरे-मुर्गे कटवाते .
मुस्लिम समाज और
कुर्वानी ------बदलाव
ही प्रक्रति का नियम है,मजबूत
से मजबूत किले में मरम्मत कि जरुरत
होती है अगर मरम्मत
नहीं होगी तो किला ढह
जायेगा और जो समय के साथ
बदलाव
नहीं लाएगा वो विकास
की विकास की दौड़ में पीछे रह
जायेगा उदहारण के लिए
सभी मुस्लिम समाज और मुस्लिम
देशों को देख लीजिए कुछ
देशो को छोड़ दिया जाये
जो तेल की अधिकता के कारण
अमीर हैं .
मुस्लिम समाज में बलि का बहुत
महत्ब है पर सिर्फ बातों में और
किताबों में इसके
आलावा किसी को सच
जानना भी नहीं है सब लकीर
की फ़कीर के राह पर चलते है ,अरे
मिया अगर बलि से खुदा प्रसन्न
हो जाते तो भारत और विश्व के
मुस्लिम इतने पिछड़े क्यूँ होते ???
एक निर्दोष जानबर की हत्या से
खुदा कैसे प्रसन्न हो सकते है अगर
हो सकते है वर्ल्ड कप और
सभी मेडल सभी मुस्लिम देश
बटोर कर ले
जाते ,कितना भी लिख
लो रिजल्ट धाक के तीन पात
रहेगा क्यूँ की जिस समाज में
गलती को स्वीकार करने
की इजाजत नहीं है वो बदलाव
कैसे करेगा ,बदलाव
नहीं होगा तो पिछड़ापन
होगा जैसा हो रहा है,कोई
भी धर्म या मजहब १०० % परफेक्ट
नहीं होता समय के साथ बदलाव
की जरुरत होती है,एक कड़वा सच
है कोई भी मुस्लिम आज के समय में
इस्लाम के सारे नियम नहीं मान
सकता लिखने के लिए बहुत कुछ
नहीं पोस्ट विवादित
हो जायेगा,क़ुरबानी का मीन्स
बुराइयों को कुर्वान करना है
ना की निर्दोष जानबर
की बिना कारण
हत्या करना है .
बलि /कुर्वानी हिंदू समाज में
दी जा रही हो या मुस्लिम
समाज में सिर्फ
अंधविश्वास,पिछड़ाप
न ,नासमझी ,जीव-हत्या और
पाप है ,जो लोग इसे सही मानते
है वो देवताओ
या खुदा को प्रसन्न करने के लिए
अपने बच्चों की बलि दें इससे
वो और जल्दी प्रसन्न हो जायेंगे
अब बलि /कुर्वानी का सपोर्ट
करने वालों को सांप सूंघ
जायेगा या लकवा मार
जायेगा.
कोई
भी कितना ही ज्ञानी हो बुद्धिमान
हो और कही भी लिखी हुई बात
पर आँखें बंद करके विस्वास मत
कीजिए क्यूँ की भगवान/खुदा ने
सबको दिमाग ,आख ,कान,नाक
दी हैं सिर्फ सही से इस्तिमाल
करने के लिए किसी बेगुनाह
की मौत से सिर्फ
हत्या होती है कोई लाभ
नहीं होता अगर कोई लाभ
होता तो रिजल्ट सामने आते
रहते .


पोस्ट बड़ी है पर पड़े जरुर.....
भगवान धूर्त, चालाक और
मक्कार लोगो के
शैतानी दिमाग
का सामाजिक, राजनैतिक और
आर्थिक षड्यंत्र है | इसको निम्न
प्रकार से समझा जा सकता है-
१. भगवान की रचना करके
लोगो को भगवान के नाम पर
डराया गया जिससे लोग
उसकी पूजा-अर्चना और
उपासना करने के लिए मजबूर हुए |
२. भगवान् की पूजा अर्चना करने
के लिए एक पवित्र स्थान
की जरुरत महसूस हुयी जिसके
लिए मंदिर निर्माण
की आवश्यकता हुयी |
३. मंदिर बनवाने के लिए धन
की आवश्यकता हुयी और धन
लोगो से श्रद्धा के नाम पर
लिया गया और मंदिर निर्माण
के साथ साथ भगवान के
रचयिताओ का भी भला हुआ |
४. भगवान की रचना के बाद
लोगो को तरह तरह से
डराया गया जिससे पाखंडो और
अन्धविश्वासो को बढ़ावा मिला |
५. पाखंडो और अन्धविश्वासो से
डरकर लोग बाग उसके
रचयिता की शरण में उनसे बचने के
उपाय जानने के लिए जाने शुरू हुए
जिनसे उनकी आमदनी शुरू
हुयी और आपका पैसा जाने
लगा |
६. भगवान के नाम पर पाप और
पुण्य का खेल शुरू हुआ और पुण्य
कमाने के नाम पर
आपका पैसा मंदिरों में
जाना शुरू हो गया और उसके
रचयिता धनाढय होते गए |
७. भगवान के नाम पर
किसी को भी बेवकूफ
बनाना सरल था जिससे ये धूर्त
लोग
अपनी निजी दुश्मनी निकालने
के लिए जनता को भड़काकर
दुश्मन के खिलाफ इस्तेमाल करने
लगे और अपने
दुश्मनों का सफाया आसानी से
करने लगे |
८. भगवान की रचना के बाद
उसको आगे चलाने के लिए
आत्मा की रचना की गयी,
जिससे मनुष्य धरती पर अपने
कष्टों के निवारण के नाम पर
ही नहीं बल्कि मृत्यु के बाद होने
वाले कष्टों से बचने के लिए
भी अपनी जेब ढीली करके
भगवान के रचयिताओ का घर भर
सके |
९. आत्मा की रचना के बाद स्वर्ग
और नरक की रचना की गयी और
इनको ऐसी जगह
बना दिया गया जहाँ पर मनुष्य
की मृत्यु के बाद आत्मा के जीवन
भर के कार्यो के आधार पर दंड और
पुरस्कार मिलना था |
१०. स्वर्ग को एक
ऐसी वैभवशाली जगह
बनाया गया जहाँ पर प्रत्येक तरह
की विलासितापूर्ण और
ऐयाशी की चीजे मौजूद थी |
जो चीज इस लोक में त्याज्य
थी वो वहां पर भगवान्
द्वारा खुद दी जा रही थी जैसे
सुरा और सुंदरिया सहित तमाम
तरह की ऐयाशिया | अब कोई इन
चीजो को क्यों प्राप्त
नहीं करना चाहेगा ? स्वर्ग
की लालसा में और स्वर्ग प्राप्त
करने के लिए अपने जीवन भर
की कमाई लुटाने लगे इसके
रचयिताओ पर |
११. अब सत्कर्म वालो के लिए
स्वर्ग था तो ईश्वर
को ना मानने वालो के लिए
भी नरक
की व्यवस्था जरुरी थी | नरक
ऐसी जगह बनायीं गयी जहाँ पर
आपको आपके जीवन भर के
कर्मो का हिसाब देना था और
सजाये ऐसी थी जो क्रूर से क्रूर
देश
भी अपराधियों को नहीं देता है
| जैसे आत्मा को आरे से टुकड़े टुकड़े
करना, आत्मा को खौलते हुए तेल
में पकाना, लोहे की कीलो पर
लिटाना | अब
इतनी यातनादायक जगह पर
कौन जाना चाहेगा तो शुरू
हो गयी अब नरक जाने से बचने के
उपायों के नाम पर कमाई |
१२. कुछ ऐसे लोग जो जीवन भर
इनके चंगुल में नहीं फंस सके
उनको भी फांसने के लिए इन्होने
आखिर तक हार नहीं मानी ऐसे
लोगो को विशेष छूट दी गयी |
इन लोगो से कहा गया आप अपने
जीवन के अंतिम क्षणों में दान
पूण्य कर दीजिये आपको स्वर्ग
की प्राप्ति होगी |
१३. स्वर्ग और नरक
की स्थापना के बाद
इनकी व्यवस्था को सँभालने के
लिए इंद्र और यमराज तथा उनके
सहयोगियों की रचना की गयी |
अब इंद्र और यमराज को प्रसन्न
करने के नाम पर कमाई शुरू |
१४. मृत्यु के बाद
आत्मा की शांति के लिए
चिता जलने से पहले ही दान
दक्षिणा की व्यवस्था की गयी वर्ना मृतक
की आत्मा को कभी शांति नहीं मिलेगी |
१५. चिता को अग्नि देने के बाद
पुरोहितो पंडितो को खुश करने
के लिए ब्रह्मभोज जैसी अनेक
प्रथाए शुरू की गयीं जिससे
भगवान के रचयिताओ
का धंधा खूब जोर शोर से चलने
लगा |


"जिस दिन जहन आज़ाद हो जाएगा-मनुवाद और ब्रह्मंवादियो की दुकाने बंद हो जाएगी.."
शरीर की गुलामी से आसानी से मुक्ति मिल जाती हे..
लेकिन मानसिक गुलामी से आज़ाद होने में सदियाँ लगती है....
ब्राह्मणवादी एवं मनुवादियों की संख्या गिनती की हे...
पर उन्हें समर्थन करने वाले और पोषक तत्वों की संख्या अनगिनत हे...
और यह एक कडवा सच हे की 80% मूलनिवासी(दलित-आदिवासी-पिछड़े) आज भी मानसिक रूप से मनुवादियों के गुलाम हैं..
इश्वर-भय से कर्मकांड-पाखण्ड-कुरीतियों-शकुन-अपशकुन आदि करने में सबसे आगे हम ही हैं...
क्या वजह हे की मनुवाद-ब्राह्मणवाद की दुकाने आज भी चल रही हे..
मंदिरों-मस्जिदों-गिरिजाघरो की संख्या बढ़ी ही हे घटी नहीं...
कोर्पोरेट कंपनियों की तरह मंदिरों-मस्जिदों का भी सालाना टर्नओवर निकलने लगा हे..
चढ़ावे के नाम पे काला धन सफ़ेद में बदला जा रहा हे....
और इश्वर के दलाल फल फूल रहे हैं... मनुवाद का कद बढ़ ही रहा हे...
इसका सिर्फ और सिर्फ एक कारण हे....
हम आज भी मानसिक गुलाम हैं.. सामाजिक बेड़ियाँ तोड़ दी गयी हैं...
पर जहन आज भी उन बेड़ियों में जकड़ा हुआ हे...
इश्वर-भय लाजमी हे.. पर उसके निवारण के लिए कर्मकांड का सहारा लेना मूर्खता हे..
आपके हाथ-पैर, आपका समाज काफी हद तक आज़ाद हे...
बस जरुरत हे तो अपनी सोच-अपने जहन को आज़ाद करने की....
भगवन के डर से बचने के लिए पाखण्ड-कर्मकांड का सहारा न लेने की...
जिस दिन जहन आज़ाद हो जाएगा-मनुवाद और ब्रह्मंवादियो की दुकाने बंद हो जाएगी..

अगर लक्ष्मी पूजा करने से धन का आगमान होता या सुख शांति मिलती तो ........ भारत देश को विदेशों से अरबों का उधार लेने की जरुरत नहीं पड़ती और भारत में ८०% जनता की कमाई केवल २० रुपया रोज यानी ६०० रूपया महीना है (हमारा मोबाइल या इलेक्ट्रिक का बिल भी इससे कई ज्यादा होता है)...
दुनिया का सबसे आमिर आदमी बिल गेट्स ने कभी लक्ष्मी की पूजा नहीं की ........ जगत के बिलिन्नेयार्स को लक्ष्मी नाम की देवता भी पता नहीं...
अमेरिका देश मात्र जीसस की पूजा करता है, और वहा गरीबी का पता नहीं (Per Capita Income). वहां के गरीब हमारे अमीरों में गिने जायेंग.......
अरेबियन देश के लोग मात्र अल्लाह की पूजा करते है, जगत के श्रेष्ठ अमीरों में कुछ की गिनती होती है.........
जापान चायना में मात्र बुद्ध की पूजा होती है और सारे लोग आमिर है......
लेकिन लक्ष्मी की सालों से पूजा करने वाले भारत की गरीबी अफ्रीका के कुछ देशों से भी बदतर है...
कड़वा सच ।।
धन की देवी लक्ष्मी की पूजा सिर्फ हमारे देश मे की जाती है,फिर भी देश की 75% जनता गरीबी और भुखमरी से लड़ रही है।।
शिक्षा की देवी सरस्वती की पूजा भी सिर्फ हमारे ही देश मे कि जाती है ।।फिर भी हमारे देश की गिनती सबसे अनपड़ देशो मे होती है।।
अन्न उत्पादन करने कि देवी अन्नपुर्णा की पूजा भी सिर्फ हमारे देश मेँ होती है।।फिर भी हमारे देश के हजारोँ गरीब किसान हर साल अत्महत्या कर लेते है ।।
बारीश के देवता इन्द्र की पूजा भी सिर्फ हमारे ही देश मेँ होती है।।फिर भी कभी सुखा तो कभी बाढ आ जाती है ।।
औरत को हमारे यहाँ देवी का दर्जा दिया जाता है ।।फिर भी दहेज के लिये हर साल हजारो औरतोँ को जिन्दा जला दिया जाता है कन्या भ्रूण हत्या के मामले मेँ अग्रणी देश है भारत।।
अतिथि देवो भवः अतिथि को भगवान माना जाता है ।।फिर भी अक्सर विदेश से आये अतिथियोँ की हत्या या बलात्कार होना हमारे यहाँ आम बात है ।।
नटखट कृष्ण की पूजा भी हमारे ही यहाँ होती है,तो क्या इसी लिये सबसे ज्यादा लड़कियो से छेड़छाड़ और बलात्कार हमारे यहाँ होते है ???
अप्प दिपो भव: अब तो मूर्खता का दामन छोड़ो
ऐसा क्यों ?
कोई भी देश या उस देश का व्यक्ति आमिर या गरीब, किसी भगवान् की पूजा करने से नहीं होता बल्कि उस देश की अर्थ निति और सबको समान संधि उब्लब्ध करने की निति से होता है...
पंसद आये तो सेयर जरुर करे
"मीर महमंद" शिवकालीन चित्रकारानेआपल्यावर
फार मोठे उपकार केलेत....मनुची या इटालीयन
प्रवाशाच्या पुस्तकांतमीर महमंद
या मुसलमानचीत्रकाराने काढलेलेचित्र आहे. हे
चित्र इ.स.१६६५ च्या आसपासकाढलेले असून हे
शिवाजीमहाराजाचेएकमेवअस्सल चित्र ओळखले
जाते .या चित्रात एकूण ३१ अंगरक्षक व शिपाई
आहेतत्यापैकी ७ अंगरक्षकांना अर्धवट तर
१३अंगरक्षकांना भरपूर दाढी-
मिशा आहेत.पेहरावावरून व चेहरेपटीवरून हे
वीसजण मुसलमानअसल्याचेठळकपणे लक्षात
येते . यावरूनशिवरायांच्या सैनिकांत असलेले
मुसलमानसैनिकांचे प्राबल्य लक्षात
येते.शिवाजीराजांची लढाई आदिलशहा,
मुघल,सिद्दी, पोर्तुगीज यांच्याविरुद्ध
होती;ती राजकीय लढाई होती. धार्मिक लढाई
नव्हती.शिवरायाचे पहिले चित्र रेखाटणारा मीर
महंमदहा मुस्लिमच होता. असे असंख्य
मुस्लिमशिवरायांकडे होते. म्हणजे
शिवाजीमहाराजधर्मनिरपेक्ष म्हणजेच
समता,मानवतावादीहोते. शिवचरित्रातून
मानवतावादशिकता येतो.छत्रपतीच्या काळात
असे अनेकनिष्ठावंतमुस्लीम सैनिक होते
ज्याची माहिती आपणासज्ञात नाही हे
लिहिण्याचे प्रयोजनएवढ्याचसाठी की आपण
छत्रपती शिवराय
वछत्रपती संभाजीराजेंना धर्माच्या बंधनात,भाषेच्या
बंधनात अडकवून,या राष्ट्रपुरूषांचे महत्व
कमी करू नये. छत्रपतींचे विचार आपणआचरणात
आणावेत.मित्र-मैत्रीनेनो मग
आपणचसांगा असा धार्मिकसाहिष्णू
ता असलेला राजा मुसलमानविरोधी कसा ??

Wednesday, 30 January 2019

हळदी कुंकू.......

मानसिक गुलामगिरी शारीरिक गुलाम गिरीपेक्षा अधिक घातक असते. कारण त्यात आपण  गुलाम असल्याची  जानीवच होत नाही .म्हणूनच  परंपरेनी  बहाल केलेल्या  सणवारांची  चिकित्सा  न करता त्यांना रहाटगाड्यासारखे  सुरू ठेवल्यास  मानसिक गुलामगिरीचा  विळखा अधिकाधिक  घटट् होत जातो.
    हळदी कुंकवाच्या  निमित्ताने स्त्रियांनचे स्नेहवादी मिलनाचा परंपरा हे असेच लोढणे होय. मुजोर गायी बैलाच्या गळ्यातही गाव खेड्यात लाकडी ओंडक्याचे लोढणे बांधतात. परंतू ते ओझेरूपी  लोडणे लवकर  सोडता येते. मात्र स्त्रियांच्या स्त्रियांच्या मेंदूत भिनलेले खूळचट परंपरांचे लोढणे  निघाल्या शिवाय स्त्रिया स्वसन्मानाची भाषा बिलकूल करणार नाही .

हळदीकुंकू  म्हणजे  काय तर परस्परांच्या सौभाग्याला दिर्घायुष्य चिंतणे. आपल्या  बायकोचे आयुष्य वाढावे म्हणजेच ती दीर्घायुष्य व्हावी अशी कामना करायला लावणारा एकतरी सणवार या संस्कृतीत  आहे काय . नाही ना कारण त्याची पुरूषाला गरजच नाही. हे कोणी शिकवले संस्कृतीने  अशा संस्कृतीत वाढणारी म्हणूनच विज्ञानाचे शिक्षण घेऊनही  अविचारी ,रूढींवादी व स्त्रिविरोधी पुरूषी मानसिकता  तयार होते.
      म्हणूनच भाऊ हा पुरुष आपल्या बहिणीच्या नवऱ्यासाठी व बाप हा पुरुष आपल्या मुलीच्या नवऱ्यासाठी  जावयासाठी  हुंड्याची व्यवस्था करतो. हि खरेदीविक्री कोणाची होते तर  एका स्त्रीची .याचा विचार कोणताही बाप  भाऊ करीत नाही. त्यामुळे बिनबुडाच्या लोटयासारखी  स्त्रीची  अवस्था आहे. म्हणूनच तर तिचे दान केले जाते. आणि पुरुष दानशूर बनतो.
    हळदीकुंकू हे नुसतेच हळदीकुंकू नाहीतर  सांस्कृतिक गु्लामीची खरुज आहे. जिचा प्रसार प्रचार  मकरसंक्रांतीला व्यापक स्तरावर केला जातो. पण त्या खरुजेचेही जतन स्त्रिया केवळ यासाठी भक्ती भावाने करतात कारण त्याचा संबध धर्माच्या परंपरांशी लावला जातो . पण खुळचट परंपरांचा त्याग आणि परंपरांची निर्मिती ही प्रक्रिया सुरु केल्याशिवाय स्त्रियांमध्ये मेंदू नावाचा अवयव आहे असे म्हणता येणार नाही.  धर्माच्या नावावर जर स्त्री विरोधी परंपरांचा धिक्कार स्त्रिया करणार नसतील तर  नुसतीच सावित्रीमाईंची जयंती साजरी करून काय फायदा. त्यापेक्षा तर सत्यवान सावित्रीचा आदर्श घेणे चांगले. 
     परंतु तसाच एखादा तरी सत्यवान या परंपरेनी  का निर्माण होवू दिला नाही जो आपल्या बायकोसाठी एवढा व्याकूळ होतो.  दुसऱ्याच्या सांगण्यावरून  आपल्या बायकोला त्यागणारा पुरुषोत्तमही देव ठरून पुजनीय मानला जातो .तेही कमी ठरेल की काय  स्त्रियांचे कपडे पळवून त्यांना कपडे परत करण्याविषयी  विचार करायला लावणारा स्त्रीलंपट  देवपुरुष महान ठरतो. अर्थात पुरुषांनी आपल्या स्वार्थाखातर हे केले ,आणी स्त्रिया आजही नवर्याला देव मानतात दुर्दैवाने.

Sunday, 13 January 2019

महाराष्ट्र में गुडीपाडवा त्यौहार का सच!

गुडीपाडवा ये त्यौहार महाराष्ट्र में खासकर मनाया जाता है। लेकिन बहोत सारे मूलनिवासी, शुद्र मराठा समाज ने अब तक इसके पीछे का इतिहास जानने की कभी कोशिश नहीं कि। हालाकि संभाजी ब्रिगेड ने सच्चा इतिहास ब...ताने का काम शुरू किया है। लेकीन अभी भी बहोत सारे लोगों को इसका ज्ञान नहीं है।

गुडीपाडवा के दिन शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज को ब्राह्मणों ने औरंगजेब को धोका करके पकड़ के दिया था और उनको मनुस्मृति के अनुसार सजा दी गयी थि। ब्राह्मणों ने उनका सर काटके भाले पे लटकाया गया और उसका जुलूस निकाला क्यों की उन्होंने बुद्ध भूषण नाम का ग्रन्थ बहोत कम उम्र में लिखा था और ब्राह्मणों की दादागिरी को ललकारा था। बहोत सारे ब्राह्मण चोरो को भी उन्होंने पकडवाके संभाजी महाराज ने सजा भी दि। इसका बदला लेने के लिए ब्रह्मनोने संभाजी महाराज की बदनामी की और उनको धोके से मार डाला, वो आज ही के दिन, गुडीपाडवा ! कह जाता है के ये त्यौहार श्री राम अयोध्या वापिस आने पर उनके स्वागत के लिए मनाया जाता है, लेकिन जहा श्री राम वापस आया था उस अयोध्या नगरी में तो कोई गुडीपाडवा ये उत्सव नहीं मनाता? तो फिर महाराष्ट्र में ही क्यों? क्या मराठा समाज को ये विचार कभी आया है?

जब मराठा लोग एक दूसरों को गुडीपाडवा दिन की बधाई देते है तो हमें बड़ा दुःख होता है और उनके अज्ञान पर बड़ा तरस आता है।
औरंगजेब ने संभाजी महाराज कि तऱ्ह आज तक किसी कि भी हत्या नाही कि थी ! महाराज को सरल तरीके से मारणे के बजाय अलग-अलग दंड क्यो दिया? सबसे पहले महाराज कि जीवा काटी गयी ! इससे अनुमान लागाया जा सकता है कि संभाजी महाराज ने संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व हासिल किया था ! उन्होने चार ग्रंथो कि रचना कि थी, इसलिये सबसे पहले उनकी जीवा काटने कि ब्राह्मनोने सलाह दि थी ! उसके बाद महाराज के कान,नाक आंखे और चमडी निकाली गयी ! यह घीनौना दंड "मनुस्मृती" संहिता के अनुसार दिया गया !
मतलब औरंगजेब के माध्यम से ब्राह्मनोने संभाजी महाराज को यह दंड दिया ! कवी कुलेश को भी औरंगजेब ने जिंदा नाही छोडा ! क्योंकी अपनी जान से भी ज्यादा चाहनेवाले संभाजी महाराज जैसे स्वाभिमानी ,निर्मल और चाहिते दोस्त के साथ यदि कुलेश गद्दारी कर सकता है,तो वह हमारे साथ भी गद्दारी कर सकता है,इस बात को सोचते हुये औरंगजेब ने कुलेश कि भी जान ले ली ! औरंगजेब ने अपने सगे भाई तथा चाहिते सरदार दिलेरखान ,मिर्झाराजे ,जयसिंग इन वफादार सर्दारो को भी मार डाला ! इसलिये मदत करनेवाले कवी कुलेश को जिंदा रखना औरंगजेब को संभाव नहि था ! क्योंकी औरंगजेब ने कवी कुलेश को उसके काम कि पुरी किमत अदा कि थी !
औरंगजेब ने संभाजी महाराज को धर्मद्वेष के कारण नहि मारा बल्की राजनीतिक संघर्ष कि वजह से मारा ! औरंगजेब ने संभाजी महाराज को केवळ दो सवाल पूछे ! पहला सवाल ,'आपके खजाने कि चाबिया कहा है? ' और दुसरा सवाल था ,'हमारे सर्दारो मे आपकी मुख् बिरी करणेवाला सरदार कौन है?' इसका मतलब औरंगजेब ने संभाजी महाराज को धर्मांतरण करणे का आग्रह नाही किया और ना हि संभाजी महाराज ने इसके बदले मे औरंगजेब के सामने उसकी लडकी कि मांग रखी ! संभाजी महाराज कि हत्या के पाश्च्यात ब्राह्मनोने जल्लोष के तौर पर " गुडीपाडवा ' शुरू किया